मुख्यमंत्री जी, राज्य के पुलिस प्रमुख और अन्य प्रशासकीय तथा राजनीतिज्ञ सलाहकारों से सहमत होते हुए बुध्दिजीवियों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को लगभग उलाहने के स्वर में आपने यही बार बार आव्हान किया है कि वे राज्य सरकार की आलोचना करने के बदले नक्सलियों के खिलाफ क्यों नहीं लिखते। आपकी 'रियाया' होने के कारण मैंने इस सलाह पर अमल किया है और समाचार पत्र इसके प्रमाण हैं। यह अलग बात है कि नक्सली हिंसा के बरक्स राज्य की हिंसा एक बड़ा खतरनाक प्रयोग है जो आज़ादी के बाद से ही भारत की चिंता का विशय रहा है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद नासूर की तरह फैल गया है। वह मलेरिया के बुखार की तरह आए दिन मनुष्यता को ही तबाह करता है और बाकी दिन जब ऐसे बुखार की तरह तापमान छोड़ देता है जिसे सामाजिक थर्मामीटर माप नहीं पाता, तब सरकारी तंत्र के अत्याचार बदस्तूर कायम रहते हैं।
मुख्यमंत्री जी, बुध्दिजीवी, मानव अधिकार कार्यकर्ता, लेखक और कलाकार किसी कौम, वंश या प्रतिबध्दता के नहीं होते। यदि होते हैं तो उनकी अभिव्यक्ति भोथरी हो जाती है। यह सुनना अच्छा लगता है कि राज्य सत्ता बुध्दिजीवियों को तुरही बजाकर विचारों के मूल्य युध्द में जुट जाने का आव्हान करती है। क्या राज्य और बुध्दिजीवियों का इतना ही रिष्ता है कि बुध्दिजीवी केवल राज्य के कहने पर सरकारी अजान दें और राज्य एक बौध्दिक नूराकुश्ती या हमख्याली की खबरें प्रकाषित करता रहे। क्या राज्य ने कभी बुध्दिजीवियों से सहकार करने की कोषिषें की हैं? छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद किसी सरकार ने कभी राज्य के हालात और भविष्य को लेकर अभिव्यक्ति के सिपाहियों से बात तक करने की जरूरत नहीं समझी। मानस-पुत्रों से मेरा आशय केवल उन कथित रचनाधर्मियों से नहीं है जो राज्य सत्ता पर निर्भर रहे बिना अपने अभिव्यक्त होने को निरर्थक मानते हैं। समाज के चिंतकों में सेवा निवृत्त बुजुर्गों, अध्यापकों, लेखकों, कलाकारों, सेवानिवृत्त फौजी और पुलिस अधिकारियों, षिक्षित उद्योगपतियों, खिलाड़ियों, अर्थशास्त्रियों, समाज सेवकों, राजनीति से तौबा कर चुके अनुभवी जनसेवकों, प्रबुध्द महिलाओं, वैज्ञानिक नवोदय के तीक्ष्ण बुध्दि के युवजनों, विधि विषेशज्ञों, चिकित्सकों, इंजीनियरों तथा प्रयोगधर्मी कृशकों आदि की जमात से है। वे किसी भी सभ्य समाज की रचना, निरंतरता और विकास के स्थायी आधार स्तंभ होते हैं। आप छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र होने के नाते हमारी स्थायी संपत्ति हैं। आयुर्वेदिक डॉक्टर के रूप में आप एक जागरूक जनसेवक हैं। राजनीतिज्ञ के रूप में आपने स्वेच्छा से एक बड़ी भूमिका का चुनाव किया है। लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी एक संयोग है। आपमें छत्तीसगढ़ के लिए ढेरों चिंताएं होंगी लेकिन छत्तीसगढ़िया होने से जो अनुभूति होती है, उसे मुख्यमंत्री की अभिव्यक्ति बनते बहुत गड़बड़ हो जाती है।
मुख्यमंत्री जी, हमारे संविधान में राज्यपाल नामक पद है जिस पर यह बाध्यता है कि वह मंत्रि परिषद की सलाह से काम करेगा सिवाय कुछ महत्वपूर्ण मसलों को छोड़कर। मंत्रि परिषद पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। कार्यपालिका के रूप में उसे नौकरशाहों को निर्देश देने के अधिकार हैं उनसे निर्देशित होने के नहीं। लेकिन अमूमन मंत्रि परिषदें नौकरशाहों पर उसी तरह निर्भर हो जाती हैं जिस तरह किसी भवन का प्रथम तल निर्भर होता है भूतल पर। यह क्यों होना चाहिए और क्यों हो रहा है? नक्सल समस्या को ही लें। सरकारी फाइलों पर ऊपर लिखित सभी तरह के नागरिकों और विधायिका के प्रतिनिधियों से सलाह मशविरे और उनकी भूमिका का नगण्य उल्लेख मिलेगा। उसमें नौकरशाही और पुलिसिया सिफारिशों की भरमार होगी। केवल क्रियान्वयन के अर्थ में नहीं सलाह देने के अर्थ में भी। नक्सल समस्या एक प्रदूषण है। वह प्रत्येक छत्तीसगढ़वासी के जीवन को तकलीफदेह बना रही है। जो भुक्तभोगी हैं उनसे क्या कभी कुछ मशविरा किया जाता है? या उन्हें इस लायक भी समझा जाता है?
मुख्यमंत्री जी, यह आई। ए. एस. और आई. पी. एस. की नौकरशाही सड़ी गली अंग्रेज व्यवस्था की देन है। गांधी जी ने इसका विरोध किया था और मौजूदा संसदीय पध्दति का भी। बीसवीं सदी की दुनिया की सबसे मशहूर कृति 'हिंद स्वराज' में तत्कालीन भारत की खस्ता हालत का उस ऐतिहासिक परेशान दिमाग व्यक्ति ने जो खाका खींचा था उसमें भविष्य के भारत के बीजाणु भी छितराए थे। क्या हमारी सरकारें जनता के साथ किया जाने वाला सलूक 'हिन्द स्वराज' के प्रस्थान बिन्दु के साथ स्वीकार करना चाहेंगी? भारतीय संसदीय पध्दति में चुनाव जीतना और कुर्सियों पर फिट होना दुर्घटना, भाग्योदय या संयोग है। बर्फ की सिल्लियों को चट्टान समझने की भूल की जाती है। जो नागरिक हैं उन्हें केवल मतदाता समझ लिया जाता है। देश में भूकंप, बाढ़ या ज्वालामुखी फट पड़ने पर तबाही का शिकार जनता होती है। राजनेता उससे धैर्र्य रखने की अपीलें करते हैं। वह टैक्स देती है। भुखमरी झेलती है। महंगाई से कराहती है। आत्महत्या करती है। राजनीतिक क्षय के रोग के कारण पीली पड़ती चली जा रही है लेकिन यदि वह उफ करती है तो उसे बगावत समझ लिया जाता है।
मुख्यमंत्री जी, इसमें कोई शक नहीं कि समाज के श्रेष्ठि वर्ग में नपुंसकता रही है। हमारी सदी के दो महानतम विचारकों विवेकानंद और गांधी ने अपनी तल्ख भाषा में इस ऐतिहासिक सत्य का उद्धाटन किया है। उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और पूरी भारतीयता का आधार किसानों, मजदूरों और गरीबों को माना है। साथ साथ महिलाओं और युवकों को भी। नक्सलवाद इन्हीं वर्गों पर श्रेष्ठि वर्ग का हमला नहीं तो और क्या है? राज्य सत्ता के अंग्रेजियत बुध्दि के कुछ नौकरशाह अपेक्षाकृत अल्प शिक्षित राजनीतिज्ञों को कंधे की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं तो और क्या है? तथाकथित नक्सलवाद के सरगना भारत के बाहर के कुछ उग्र राजनीतिक विचारों को एक अलग बौध्दिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक संदर्भ में जबरिया ठूंसने का प्रयत्न कोई चालीस वर्षों से कर रहे हैं। यह विचारधारा पूरी तौर पर भारतीय परंपराओं और संविधान के विपरीत है। यह जनग्राह्य नहीं होती इसलिए नक्सली बंदूक का सहारा लेते हैं। सरकारें विचारधारा के स्तर पर मुकाबला करने के उपक्रम में सरकारी नुमाइन्दों द्वारा तैयार की गई प्रेस विज्ञप्तियां जारी करती हैं। वे नौकरशाह ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को संभालते हैं। लिहाज़ा होता यह है कि जो मुफलिस हैं वे अपने ऊपर सरकारी प्रचार को आक्रमण मानते हैं। समाज एक सांस्कृतिक समास है। क्या नागरिक समाज इस अर्थ में सरकार का अंग नहीं हैं? उसकी केवल तमाशबीन की भूमिका क्यों समझी जाती है? सरकारें नक्सलवादियों से तो संवाद करना चाहती हैं लेकिन समाज के मानसपुत्रों से नहीं। सरकारी विज्ञप्तियां समाचार पत्रों के अतिरिक्त प्रदेश के चुनिंदा बुध्दिजीवियों को पृथक से नहीं भेजी जातीं। लेकिन नक्सलवादी बाकायदा ऐसा संपर्क उनसे करते रहते हैं। अब यदि किसी बुध्दिजीवी के पास नक्सली साहित्य, चिट्ठियां पर्चे, सी।डी. संयोगवश मिल गये (जिनको बुध्दि विलास की खुशफहमी में रहने के कारण नष्ट नहीं किया गया) तो वे बाकायदा नक्सलवादियों के रूप में पकड़ लिए जायेंगे। आपकी सरकार ने देश के इतिहास का सबसे खतरनाक जनविरोधी कानून भी बना रखा है। यह अलग बात है कि उसके बावजूद नक्सल गतिविधियां बढ़ती ही जा रही हैं। आपकी सरकार ने देश के इतिहास का सलवा जूडूम नामक पहला प्रयोग भी कर रखा है। वह बढ़ते नक्सलवाद के सामने बौना पड़ता जा रहा है। हिंसा के खिलाफ जन प्रतिरोध एक सामाजिक लक्षण है। महात्मा गांधी ने तो अंग्रेज़ की हिंसा के खिलाफ उसको हवा दी थी और सफल रहे थे। क्या नक्सलवादी अंग्रेज़ षासकों से ज्यादा शक्तिशाली हैं और क्या छत्तीसगढ़ की जनता में हिंसा का प्रतिरोध करने की नीयत, कूबत और शक्ति समाप्त हो गई है। जो तटस्थ हो जाते हैं, वक्त उनका भी इतिहास लिख देता है।
मुख्यमंत्री जी, नक्सली कहते हैं कि वे एक जन आंदोलन चला रहे हैं। चारु मजूमदार, कनु सान्याल और जंगल सन्थाल वगैरह के विचारों को मैंने पढ़ा है। नक्सलवाद को लेकर मुझ जैसे सैकड़ों बुध्दिजीवियों की अपनी अपनी निजी और सामूहिक समझ भी है। कवियों को केवल कविता पढ़ने की सरकारी फीस दी जाती है। तुलसी जयंती, निराला जयंती तथा ग़ालिब जयंती वगैरह के आयोजनों में जो शिरकत करते हैं उतनी ही बुध्दिजीविता की उनकी भूमिका समझी जाती है। विधान सभा अध्यक्ष और मंत्री उनसे सत्कार ग्रहण करते हैं। कसीदे पढ़वाते हैं। संस्कृति मंत्री पुरस्कार, अनुग्रह राशि और अनुदान देते हैं। सरकार के नुमाइंदे अकबर की भूमिका में होते हैं और बुध्दिजीवी नवरत्नों की। इतिहास गवाह है कि आइने अकबरी में तुलसीदास के नाम का उल्लेख तक नहीं है। आज अकबर के नवरत्न कहां हैं? लेकिन तुलसीदास की रामचरित मानस मुफलिसों की झोपड़ियों में प्राणपद वायु की तरह प्रवाहित है। मंत्रि परिषदें आएंगी और जाएंगी। बड़े नौकरशाह और कुलपति वगैरह गैर छत्तीसगढ़िया होने के कारण अपने अपने प्रदेशों में लौट जायेंगे। शायद सेवानिवृत्त भूगोल में रह भी जायें। गरीब और लाचार लोग तो मृत्यु के बाद सचमुच कहीं नहीं रहेंगे। राजसत्ता विहीन जो प्रज्ञा पुरुष होते हैं वे ही इतिहास में दर्ज होते हैं। पंडित रविशंकर शुक्ल जैसे मंत्री और नरोन्हा जैसे नौकरशाह के कुछ अपवादों को छोड़कर सरकारें विस्मृति के तहखानों में कैद हैं। लेकिन 'छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया' के मुहावरे को चरितार्थ करने वाले गुरु घासीदास, माधवराव सप्रे, गुंडा धूर, सुंदरलाल त्रिपाठी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्षी, मिनीमाता, ठाकुर प्यारे लाल सिंह, डॉ. खूबचंद बघेल, कामरेड प्रकाश राय, कुंजबिहारी लाल अग्निहोत्री, स्वामी आत्मानंद, मुकुटधर पांडेय, देवकीनंदन दीक्षित, राजमोहिनी देवी, सुन्दरलाल त्रिपाठी, रामदयाल तिवारी, कामरेड रूईकर, हबीब तनवीर, रामचंद्र देशमुख, पंढरी राव कृदत्त, नरसिंह प्रसाद अग्रवाल, षंकर गुहा नियोगी, मदन तिवारी, शानी, हरि ठाकुर जैसे कई चुनिंदा जननायक और बौध्दिक हैं जिनके वंशजों को 'सबसे बढ़िया छत्तीसगढ़िया' की शक्ल में सरकार द्वारा चुना जा सकता है। छत्तीसगढ़ में कुल मिलाकर छत्तीस ऐसे समाज प्रतिनिधियों को रस्मी तौर पर ही चुना जा सके जिनसे यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे आपके कभी कभार होने वाले आव्हान के अनुरूप सरकारी कोशिशों को सामाजिक सलाहों के अनुरूप लचीला और अमल योग्य बना सकें।
मुख्यमंत्री जी, तटस्थ, वस्तुपरक और संवेदनशील बुध्दिजीवी आपसे स्वयं होकर इन विषयों पर चर्चा करने के लिए समय मांगते रहे हैं लेकिन आपके संपर्क अधिकारी इन गुणों से लबरेज़ कहां हैं। इसलिए जन चौपाल में ऐसे पत्र लिखने की मुझे ज़रूरत महसूस हुई है। मुझे अब भी लगता है कि यदि छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक इकाई को एक वैचारिक मनुष्य के रूप में तब्दील किया जाए तो छत्तीसगढ़ के उन निरीह, अषिक्षित और बेहद गरीब आदिवासियों को ज़रूरी समझाइश, आर्थिक उन्नयन, कानूनी सहायता और सामाजिक स्वीकार्यता के आयामों को सुदृढ़ करके नक्सलवाद से बचाया जा सकता है। इसके लिए केवल सुरक्षा बलों की ज़रूरत नहीं होगी। पुलिस तो हमारी अतिरिक्तता है। वह समाज का अंतर्भूत अवयव नहीं है। सेना और पुलिस में जितनी कमी होगी समाज में उतनी ही सुदृढ़ता होगी। नक्सलवाद का नेतृत्व तो पड़ोसी राज्यों बंगाल, बिहार, आंध्रप्रदेश और उड़ीसा से आया है। उसका मूल छत्तीसगढ़ में नहीं है। आप आंकड़े उठाकर देखें जितने कथित नक्सली मारे गये हैं, उनमें इन पड़ोसी राज्यों के बल्कि और सुदूर प्रदेशों के कितने नक्सली षामिल हैं? छत्तीसगढ़ में जन युध्द के नाम पर गृह युध्द हो रहा है। बस्तर में ज्यादा और सरगुजा में कम। दोनों तरफ आदिवासी हैं। दोनों तरफ पेट भरने की लाचारी है। दोनों तरफ उनके हक तथा हिस्से की पूंजी में से राजनीतिक चौथ वसूली जा रही है। दोनों तरफ हिंसा का मुकाबला है और लगभग एक जैसे हथियारों से। नक्सलवादी की परिभाषा भी बहस मांगती है। जिनमें हिंसक विचार है कानून की दृष्टि से वे ही नक्सलवादी हैं। जो पूरी तौर पर निरक्षर हैं। छत्तीसगढ़ी तक नहीं जानते हैं। भारत के किसी नेता को नहीं पहचानते हैं। जिनके पास तन ढंकने को वस्त्र नहीं है। जिनके जंगल टाटा और एस्सार समूह के आने वाले उद्योग छीन रहे हैं। जिनकी संस्कृति विदेशों में बिकाऊ माल की तरह खपाई जा रही है। हमारा महान करमा नृत्य सरकारी कार्यक्रमों में राज दरबार की वस्तु बनाया जा रहा है। आदिवासियों के चेहरे का भोलापन और मुस्कान भारतीय संस्कृति का उत्स रहा है। 'जयश्री राम' में विश्वास रखने वाले लोगों को तो शबरी के चरित्र के प्रति श्रध्दा होनी चाहिए और कुब्जा के प्रति भी। अंग्रेज़ी में जिसे बॉडी लैंग्वेज कहते हैं, उसी मासूम चेहरे के कारण ही तो आपकी लोकप्रियता है। उसमें से भी छत्तीसगढ़ की सहजता झांकती रहती है। मुझ जैसे कई लोग हैं जिनके पास नक्सली समस्या की तह में जाकर उसके निदान के सुझाव होंगे लेकिन हमें सरकारी तामझाम से परहेज़ होता है। हममें से कुछ लोग नक्सलियों से भी बात कर सकते हैं बशर्ते उनमें गलत ही सही छत्तीसगढ़ी के निर्दोष विचार की अनुगूंजें तो हों। वे तो तालिबान की तरह धन की डकैती करते हैं और हमारे बेहद सीधे सादे आदिवासियों को फिदायीन दस्ते में तब्दील करते हैं। सरकारी अफसर भी केवल बंदूक की गोली के दम पर नक्सलवाद को खत्म करने का शिगूफा छेड़ते रहते हैं। नक्सलवाद छत्तीसगढ़ की समस्या है, तो हर छत्तीसगढ़ी को अपने स्तर पर इस सामाजिक समस्या का आकलन और हल करने के लिए सुझाव देने का सांस्कृतिक अधिकार है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो आने वाली पीढ़ियां हमारे गुम हो गए चेहरों पर भी कोलतार का पोचारा फेरेंगी।
मुख्यमंत्री जी, आपने केवल लिखने का आव्हान किया। हम लोग तो सरकार के साथ सहकार भी करना चाहेंगे। शर्त तो नहीं लेकिन झिझक यही है कि हमारी बौध्दिक सचेष्टता को तटस्थ, निष्पक्ष भविष्य मूलक और गहरे सरोकारों के साथ जुड़ी हुई समझा जाये। आप यही चाहेंगे तो मैं इब्तिदा करने के नाम पर एक नोट आपको भेज सकता हूं और कुछ प्रतिष्ठित सबसे बढ़िया छत्तीसगढ़ियों के नाम भी। उनमें और कुछ नाम सरकार के अधिकार के अंतर्गत जोड़े घटाए जा सकते हैं। मैं समझता हूं कि बंद कमरों में तो केवल हथियारों की रणनीति को अंजाम दिया जा सकता है। लेकिन नक्सलवाद तो खूंरेजी का खुलेआम खेल है। एक सार्थक वैचारिक जन आंदोलन छत्तीसगढ़ के राजनीतिक वातावरण को ज्यादा विषाक्त होने से बचा सकता है। जिन्हें इसी मिट्टी में दफ्न होना है उनके लिए यह एक कर्तव्यगत सरोकार है। हम जैसे बूढ़ों के पास कम समय बचा है। उन्हें यह सरोकार और ज्यादा सघन लगता है। छत्तीसगढ़ की खनिज संपदाएं, वन, पानी, बोली, संस्कृति वगैरह तो कुदरत ने हमें दी है जिन्हें भविष्य की पीढ़ियों के लिए हमें सुरक्षित रखना है। आंख मूंदकर पूंजीपतियों को बेचना नहीं है। राजनीतिक भ्रष्टाचार, नौकरषाही के अत्याचार, प्रदूशण, शराब के ठेके, पुलिसिया जुल्म, नेताओं के चोचले, बुध्दिजीवियों की निराशा, योजनागत अदूरदर्शिता, दफ्तरी लाल फीताशाही, तरह तरह के घोटाले, सामाजिक हिंसा, बौध्दिक बौनापन, असंवेदनशीलता, संकुचित दृष्टिकोण वगैरह तो वे मानव उत्पाद हैं जिन्हें हमने खासतौर पर छत्तीसगढ़ की विश्वप्रणम्य आदिवासी संस्कृति पर लाद दिया है। आप हमारे प्रदेश के इतिहास के उस दौर के मुख्यमंत्री हैं जब ये सभी आरोप काल हम पर थोप रहा है। संविधान के जन समर्थन और राजनीतिक दौर में आप को ये जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं। आपसे कंधे से कंधा लगाकर भविष्य को अनुकूल बनाने की जो चुनौतियां हैं उनके प्रति मेरी तरह के हर नागरिक का फर्ज़ बनता है। हमने ठीक तरह से आज तक मुख्यमंत्री निवास और मंत्रालय देखा तक नहीं है जबकि विनिबंधनुमा इस पत्र में लिखे गये मुद्दों को लेकर हमारे सचेष्ट अनुरोध रहे हैं।
मुख्यमंत्री जी, इस पत्र पर पता तो आपका है लेकिन पता नहीं इस पत्र का क्या होगा।
आपका एक मतदाता मात्र समझा जाता हुआ नागरिक
कनक तिवारी
दिनांक : 25.07.2009
Sunday, 26 July 2009
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सब कुछ तो आपने कह दिया, हम क्या कहें?
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